परत दर परत उतरती जा रही है ज़िन्दगी
प्याज के छिलकों की तरह ,
आखिर के शुन्य से घबरायी
मैं पूछती रहती हूँ
आखिर कौन हूँ मैं ,
फलाने की बेटी
चिलाने की बहन
ढिमाके की पत्नी ,
कब तक मेरी संवेदनाओ को
आलम्ब पकडाया जायेगा ,
कब तक मेरी पहचान की लता
सूखे काठ पर चढाती रहूँ ,
दादी के लाख मनौतियों के बाद भी मैं जन्मी
उदास कर गयी एक उत्सव की उमंग ,
टुकुर टुकुर ताकती उन आँखों पर
बस माँ ने छुप छुप कर बलैयां ली थी ,
सेवा मेरा धर्म है
स्वीकर्यता मेरा शील ,
सहमति सभा में मेरी डोर
पुरुषो के हाँथ में होती है ,
असहमति का स्वर
मेरे बिगडैल होने का लक्छन बन
दीवारों के पार फुसफुसाने लगता है ,
माडर्न भी होना है मुझे
ताकि मेरे आस पास खड़े
लोगो के चेहरे पर सभ्यता का मुखौटा चढ़ा रहे ,
परत दर परत छिलकों की तरह
उतरती इस ज़िन्दगी के आखिर में
मिलने वाले शुन्य से घबरायी
मैं टटोलती रहती हूँ खुद को ,
पूछती रहतीं हूँ खुद से
क्या मैं सिर्फ योनी हूँ ?
क्या मैं सिर्फ गर्भ हूँ ?
क्या मैं सिर्फ सेवक हूँ?
क्या मैं सिर्फ अनुकरण का व्याकरण हूँ ?
मेरा स्वतंत्र अस्तित्व
मेरी संवेदना की लता को
खुद पर ढो सकता है ,
प्याज के छिल्को सी उतरती
ज़िन्दगी के आखिर का शुन्य
मेरी पहचान नहीं हो सकता .
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