Tuesday, February 26, 2013

ज़िन्दगी के आखिर का शुन्य



परत दर परत उतरती जा रही है ज़िन्दगी 
प्याज के छिलकों की तरह ,
आखिर के शुन्य से घबरायी 
मैं पूछती रहती हूँ 
आखिर कौन हूँ मैं , 
फलाने की बेटी  
चिलाने की बहन 
ढिमाके की पत्नी ,
कब तक मेरी संवेदनाओ को 
आलम्ब पकडाया जायेगा ,
कब तक मेरी पहचान की लता 
सूखे काठ पर चढाती रहूँ ,
दादी के लाख मनौतियों के बाद भी मैं जन्मी 
उदास कर गयी एक उत्सव की उमंग , 
टुकुर टुकुर ताकती उन आँखों पर 
बस माँ ने छुप छुप कर बलैयां ली थी , 
सेवा मेरा धर्म है
स्वीकर्यता मेरा शील , 
सहमति सभा में मेरी डोर 
पुरुषो के हाँथ में होती है , 
असहमति का स्वर 
मेरे बिगडैल होने का लक्छन बन 
दीवारों के पार फुसफुसाने लगता है , 
माडर्न भी होना है मुझे 
ताकि मेरे आस पास खड़े  
लोगो के चेहरे पर सभ्यता का मुखौटा चढ़ा रहे , 
परत दर परत छिलकों की तरह 
उतरती इस ज़िन्दगी के आखिर में 
मिलने वाले शुन्य से घबरायी 
मैं टटोलती रहती हूँ खुद को ,
पूछती रहतीं हूँ खुद से 
क्या मैं सिर्फ योनी हूँ ?
क्या मैं सिर्फ गर्भ हूँ ?
क्या मैं सिर्फ सेवक हूँ?
क्या मैं सिर्फ अनुकरण का व्याकरण हूँ ? 
मेरा स्वतंत्र अस्तित्व 
मेरी संवेदना की लता को
खुद पर ढो सकता है , 
प्याज के छिल्को सी उतरती 
ज़िन्दगी के आखिर का शुन्य 
मेरी पहचान नहीं हो सकता .