Friday, October 8, 2010

काबिलेगौर ये है


मेरी मासूमियत को लकवा मार गया है
काबिलेगौर ये है
की मैं खुद से रूठ गया हूँ ,
गर्म कॉफी में तैरते बर्फ के टुकडे सा
जल रहा हूँ ग़ल रहा हूँ
घोलता हुआ फीकापन ,
पर अब तो संजीदा मसलो पर भी
बोल नहीं  फूटते ,
मेरी  ही मसलहत* की शिकार मेरी मासूमियत
टुकुर टुकुर ताकती है मुझे बेबस ,
मैं नज़रे फेर गुनगुनाने लगता हूँ
जैसे कुछ हुआ ही नहीं ,
पर काबिलेगौर ये है
की मैं खुद से रूठ गया हूँ
मेरी मासूमियत को लकवा मार गया है,

* मसलहत - Philosophy

Sunday, April 25, 2010

मैं ज़िन्दगी हूँ , मुस्कराना जानती हूँ

सतरंगी धूप की बेरंग तपिश सी
मैं फरेबी सब्जबाग नहीं जो मिराज़ बन जाऊं
मैं ज़िन्दगी हूँ खुद को आज़माना जानती हूँ
बेलौस बेधड़क छौंक सी हंसती हूँ
बासी खुशियों का मरहम
ताज़े ज़ख्मो पे रखती हूँ
 मैं ज़िन्दगी हूँ , मुस्कराना जानती हूँ
नाचती हूँ बंजारों सी बेफिक्र
मुझे घर नहीं आसमान चाहिए
मैं ज़िन्दगी हूँ ख्वाब सजाना जानती हूँ
इश्क फरेबी यार अजनबी
रिश्ते नाते हुए मतलबी
मैं चीखती नहीं
मैं ज़िन्दगी हूँ , दर्द गुनगुनाना जानती हूँ
मेरी आँखों के आलो में रोशन दीये
हर मात पे शय के सौ रास्ते
मैं डूबती नहीं
मैं ज़िन्दगी हूँ , पार जाना जानती हूँ

                                                

Saturday, March 13, 2010

कुछ पल को अभी चुप रहने दो

दर्द उकता गयें हैं
रिस रिस के,
कुछ दिन को अभी
तमाशा ये बंद है,
कुछ पल को अभी चुप रहने दो
मायूस ना हो
मैं  तड़पुंगा           
मजलिसे फिर सजेंगी
दर्द की मेरे
कुछ पल अभी चुप रहने दो 
तुम्हारी सोंधी हंसी के बिना
भला जी सकूँगा मैं ,
बड़े बेसब्रे हो
ख्वाबों में चले आते हो,
सोती आँखों से
भला रो सकूँगा मैं ,
कुरेदूंगा ज़ख्म अपना
तुम्हारे लिए
बिलबिला उठूँगा
नए अंदाज़ से
तब हंस लेना
कुछ पल को अभी चुप रहने दो!

Thursday, March 11, 2010

बस ख्वाब ही तो हैं

पतले गुलाबी नर्म से
तेरे ये होंठ,
इश्क़ की एक प्यारी सी
नज़्म ही तो हैं,
धर लूं अपने होंठो पे
चुपके से गुनगुना लूं,
खतावार ना कह
बस ये ख्यालात ही तो हैं ,
कभी तेरा जी नहीं करता
सर रख के मेरा गोद में
लोरी सुनाये मुझको
लम्हात ठहर जाएँ
सदियाँ गुज़र जाएँ
गुनहगार ना कह मुझको
ख्यालात हैं ये मेरे
मीठे से मेरे ख्वाब
बस ख्वाब ही तो हैं

Wednesday, March 10, 2010

बेवजह तुमने भी कुछ गुत्थियाँ बुन लीं

बेवजह तुमने भी कुछ गुत्थियाँ बुन लीं,
बियावन  है मेरी राह,
गुजरती जंगलों के
बीच,
पराये सच और अपने झूठ की
क्यों गाँठ बुन लीं,
बेवजह तुमने भी कुछ गुथियाँ बुन लीं!
थोथी बातें, नकली गीत
कैसे दिल बहलाओगे,
हम तो सच के सांप से
खेलें ,
तुम कैसे रह पाओगे,
आज तुमने फिर गलत एक राह चुन ली,
बेवजह तुमने भी कुछ गुत्थियाँ बुन लीं!
बे- शिकन चेहरे से मेरे
 मत भरम खाओ,
बड़े मासूम हो तुम
घर अपना कैसे जलाओगे,
हमने कहा था कुछ और
बात तुमने कुछ और सुन ली,
बेवजह  तुमने भी कुछ गुत्थियाँ बुन लीं!
चाहिए कुछ और ज़िन्दगी से
माँगते कुछ और हो,
सच की खूंटियों पे
टांगते कुछ और हो,
कैसे काटोगे सफ़र
ग़र ज़िन्दगी ने दुआ सुन ली
बेवजह तुमने भी कुछ गुत्थियाँ बुन लीं

Sunday, February 21, 2010

आवाज़ एक पुल है


अनेक बार
चाहते हुए भी
मैं सहमत नहीं हो पता
उस से

मंतव्य अपने
समझा भी नहीं पता
एक शून्य फैल जाता है
बीच में

तब
उससे करता हूँ उम्मीद
कि वह मरम्मत करे
दरकते हुए पुल की
आवाज़ दे मुझे
क्योंकि आवाज़ एक पुल है

पर किसी रहस्यमयी
ठण्ड की वजह से
जो हमारे भीतर कहीं
गहराई में बसती है
आवाज़ तब बर्फ़ हो जाती है
जब महकना चाहिए उसे
कॉफ़ी की ख़ुशबू की तरह

संवादहीनता के ठण्डे स्पर्श से
अपनापन तिड़कने लगता है
काँच की तरह

तब
ध्रुवों से सर्द बियावान
अकेलेपन से घबराकर
मैं
असहमति को
उसकी विशिष्टता
मान लेने को
सहमत हो जाता हूँ।

मेरा अकेलापन मेरे साथ था

एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं,
खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा
एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा
नीचे झाँककर देखा हँसते--खिलखिलाते,
लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे
प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़
पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा
या यूँ कहूँ कि सुन नहीं सका।

कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया
चादर,पलंग,तस्वीरें,किताबें
सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना
मन को न भटकने देने के लिए
रैक की एक-एक किताब को चुना
इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर
पहली बार निस्संगता का भाव जगा
ध्यान रहे-- सबसे विश्वसनीय साथी ही,
साथ न होने का अहसास जगाते हैं।

दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा
पाखिओं के शोर में भी शाम नीरव लगी
मन जागकर कुछ खोजता था--
ढलती शाम में सुबह का नयापन!
आस तो कभी टूटती नहीं है
सब डूब जाता है तब भी नहीं।

मन में आशा थी उससे दूर जाने की
उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की
मैं निस्संग था ,पर एकाकी नहीं
मेरा अकेलापन मेरे साथ था !

दिन के हर उस क्षण में, जब मैं
प्रकृति में, लोगों में, किताबों में
अपनी,केवल अपनी इयत्ता खोजता था.
और उसने कहा--
तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते,
मत होओ -क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप
केवल मैं ही पहचानता हूँ।

यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए,
अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए,
और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ।
संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो
इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए,
मुझे आना पड़ता है ,
मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है

...और अब मेरे आस-पास घर, बच्चे, किताबें
लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था
केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था।